"वर्तिका अनन्त वर्त की o

एक मासूम सी लड़की जो अचानक ही बहुत समझदार बन गयी पर खुद को किस्मत के हादसों ना बचा पायी,जो बेक़सूर थी पर उस को सजा का हक़ दार चुना गया
ITS A NOVEL IN MANY PARTS ,

Monday, March 27, 2017

"वर्तिका अनन्त वर्त की"chapter5 pg 5 बहती हवा

                                 "वर्तिका अनन्त वर्त की"chapter5 pg 5 बहती हवा


उस हादसे के बाद माँ मेरा काफी ध्यान रखती ,की ,मैं कम से कम अकेले रहूँ ,मैं भी सब भूलने लगी ,इस नए घर में मेरी हमउम्र सहेलिया भी थी और हमउम्र  बहुत से लड़के भी ,मैं खुश थी ,स्कूल पढ़ाई होमवर्क ट्यूशन पूरी तरह से व्यस्त इस साल मैंने ९ की परीक्षा दी थी ,और अच्छे  नम्बरो से पास हो हाई स्कूल में पहुँच गयी थी ,इस दौरान बहुत तरह के ,शारीरिक और मानसिक, बदलावों से गुजरी, पर क्योंकि अपनी सभी हम उम्र , लोगो के बीच थी ,और उनके साथ भी, वही हो रहा था जो मेरे साथ ,तो तनाव नही हुआ बल्कि हम सब ,शाम को साथ बैठ कर हर विषय पर बात करते ,और बहुत हँसते ,आजकल मेरा मन फिल्मो में बहुत लग रहा था ,स्पेशली लवस्टोरी मुझे बहुत ही अच्छी लगती,हमसब ,सहेलिया बस   किसका किसके साथ अफ़ेयर है ये हि बाते करते
हमारे साथ ही साथ हमारे हमउम्र लड़के ,भी परिवर्तन के दौर से गुजर रहे थे, अब हम लोग ज्यादा बात नही करते ,अपने आप ही एक, दूरी सी बन गयी थी,आज कक्षा १० का पहला दिन था, बहुत खुश थी मैं ,स्कूल से वापस आते समय देखा ,मेरे पड़ोस में रहनेवाला एक लड़का ,मेरे स्कूल के बाहर खड़ा था,मैंने खास ध्यान नही दिया ,वो मेरे रिक्शे के पीछे -पीछे अपने  दोस्तों के साथ, घर तक आया ,मुझे समझ नही आया, लगा, होगी कोई बात, हंस के मेरी तरफ देखा तो मैं ,भी हंस दी ,उसके सब दोस्त भी हसने लगे ,मुझे क्या?"मैं घर में चली गयी, खाना खाया  ,स्कूल के किस्से माँ को बता ,सो गयी ,मुँह  धो कर  बाहर गयी तो,हद  ही हो गयी !वो फिर अपने दोस्तों के साथ बाहर मेरी बालकनी के सामने ,अपनी बालकनी में था ,फिर मुस्कुराया,मुझे कुछ समझ नही आ रहा था ,मैं भी मुस्कुरा के अंदर आ गयी ,अब बाहर जाने का मन नही किया ,अंदर ही टीवी देखती रही ,एक घण्टे बाद छुप के खिड़की से बाहर देखा तो, वो और उसके दोस्त एकटक मेरे घर की तरफ देख रहे थे,मेरा दिल जोर -जोर से धड़कने लगा ,मुझे लगा जैसे मैंने ही कोई भूल करदी, मैं बाहर नही गयी मेरी सारी सहेलिया मुझे बुलाती रही पर सर दर्द का बहाना बना ,मैं घर के अंदर ही रही. ७ बजे अँधेरा हो गया, मैं बालकनी में आयी, और मेरे आते ही "लवस्टोरी" मूवी का गाना "याद आ रही है तेरी याद आ रही है "बजने लगा ,हैरान हो कर  उस  तरफ देखा तो वो लड़का अभी भी वही बैठ कर मुझे देख रहा था और ये गाना  सुन रहा था,,,अममआआआआ! मैं  ,अंदर आ गयी ,मुझे पूरी रात नींद नही आयी ,ये क्या हो रहा था ,आशीष ऐसे क्यों कर  रहा ?अगले दिन फिर वही ,वो फिर स्कूल आया फिर घर तक ,स्कूल का बैग रख ,मैं, तुरन्त उसके घर चली गयी ,वो घर पर नही था ,मैंने उसकी बहन जो मेरी हउमर ही थी पूछा ,"रेखा ये आशीष रोज़ मेरे स्कूल आता है ,अगर कोई काम हो तो मुझे बता दो ,वो गर्ल्स स्कूल है कहि वॉचमन, इसकी पिटाई ना करे ,रेखा और उसकी माँ हैरान हो गयी। उन्होंने कहा हम पूछते है ,और मैं घर आ गयी,कुछ देर के बाद उसके घर से बहुत ज़ोर ज़ोर से आवाज़े आने लगी उसका बड़ा भाई उसे डाँट  रहा था,मैं अपनी विजय पर बहुत खुश थी ,आशीष अपनी बालकनी में भी नही आया ,पर एक दूसरी मुसीबत अब वह उसका भाई खड़ा था ,अजीब नज़रो से मुझे देख रहा था वो मुझसे ३ साल बड़ा था,अरे उसने एक नया  गाना  लगा दिया और गाने भी लगा "तुमको देखा तो ये ख्याल आया जिंदगी धुप तुम गहन साया"मुझे तो कुछ समझ ही नही आ रहा था, मैं बालकनी के पीछे की तरफ चली गयी ,वहा  से आशीष का कमरा साफ़ नज़र आता था,मेरे पहुँचते ही उसके कमरे से भी गाने की आवाज़ आने लगी "जितने भी तू कर  ले सितम हंस _ हंस के सहेंगे हम ये प्यार ना होगा कम"
                                            मैं परेशां" और हैरान" अपने रूम में टीवी देखने लगी और सोचने लगी अब कल क्या होगा ..................................................बाकि अगली पोस्ट में 





Sunday, March 26, 2017

"वर्तिका अनन्त वर्त की"chapter4 pg 4 मासूम फरिश्ते

"वर्तिका अनन्त वर्त की"chapter4 pg 4 मासूम फरिश्ते 

माँ !अपनी धुन में मगन जिंदगी के खेल में पापा को भी बहुत पीछे छोड़  चुकी थी,जिंदगी की इन स्वतन्त्र गाढे और चमकदार रंगों में वो खुद को रंग चुकी थी,मेरे भाई बहन अपने स्कूल की शिक्षा में व्यस्त थे ,अब मैं काश ८ में थी ,और काफी परिपक्व हो चुकी थी ,माँ की और से तो दिशा हीनता और असहयोग ही मिला था ,माँ लॉयनेस क्लब की सेक्रेटरी थी अब,और किटी पार्टीज की चर्चित महिला भी ,पापा  के पैसो को अपनी हेरा फेरी से कुछ इस तरह, खर्चती की, हम मध्यम वर्गीय लोग भी लोगो को लखपति लगा करते ,दिन रात नई साड़ियां ,नए कपड़े ,सेंडल्स ,किसी चीज़ की कमी नही थी बस हम बच्चो को सिर्फ, त्योहारों पर ही, कपड़े नसीब होते ,पापा के लिए वो भी ,अनियार्य नही था ,रात दिन पापा के दोस्तों की महफ़िल लगती, सब मिल कर ताश खेलते ,खाते पीते और चले जाते। 
यों ही जिंदगी चल रही थी ,माँ ने आज अपनी सहेलियों के साथ फिर सिनेमा का प्लान बनाया था ,भाई बहन स्कूल जा चुके थे मुझे बुखार सा था, सो मैं आज घर पर ही थी पापा सुबह ही टूर पर चले गए थे ,और फिर १२ से ३ के शो हेतु माँ मुझे बाहर से लॉक कर चली गयी, चाभी मेरे ही पास थी ,जो मुझे भाई बहनो को देनी थी, उनके स्कूल से वापस आने पर ,माँ के जाते ही मै सारी  सत्यकथा ,मनोहर कहानिया आदि मैगजीन्स निकल के पढ़ने बैठ गयी,उफ़ बहुत ही अजीब था सब ,उन पुस्तको की तस्वीरे देख मुझे बहुत ही शर्म आती,पर कुछ ही देर में ,मैं  अपनी ख्यालो की दुनिया में जा कर ,अपने लिए किसी  भी, हीरो को अपना साथी ,समझ ख्यालो में खो जाती, और वो सब महसूस करने की कोशिश करती ,
जो मैंने उस घटिया साहित्य में पढ़ा ,ये मेरा सबसे प्रिय खेल था,आज भी माँ के जाने के बाद ,अभी एक कहानी पढ़ी ही थी,की दरवाज़े पे दस्तक हुयी,देखा तो मेरी मकान मालकिन का लड़का था ,मैं जानती थी माँ नही है इसलिए किसी को भी अंदर नही बुलाना है। सो मैंने कहा ," दादा माँ नही है,वो बोला "ठीक है तुम ,खिड़की पर आ जाओ "मै वहाँ  गयी तो उसने मुझे एक पुस्तक दी और बोला "ये बहुतअच्छी कहानियो की किताब है, इससे पढो, कुछ न समझ आये, तो पूछना ,पर किसी को भी देना या बताना मत, इस के बारे में। ,मैंने कहा क्यों दादा ?वो बोला सब जलते है तुमसे छीन लेंगे ,और फिर मुझे तुमसे बात भी नही करने देंगे ,मैंने सोचा दादा अक्सर मेरे लिए आइसक्रीम लाता था, और लड़ाइयों में भी, मेरा ही साथ देता था ,,भला इसको क्यों खो दू मैं ,मैंने कसम खा ली ये ,बात बस हम दोनों के बीच ही रहेगी ,वो चला गया. 
पुस्तक बहुत ही छोटी सी थी ,उस पर न्यूज़ पेपर का बेतरतीब सा कवर था ,मैंने सोचा चलो इस का कवर ठीक कर  दू , कवर को हटाते ही होश ही उड़ गए मेरे ,उस पर तरह तरह के अश्लील  चित्र थे ,मेरे अंतर्मन ने तुरन्त कहा ये ठीक नही ,मैंने घबरा के पुस्तक माँ के कमरे में रख दी,सब के आने का टाइम भी हो गया था ,भाई बहन आ गए और कहना खा कर सो भी गए मैं अब तक सहमी  हुयी थी,मम्मी भी आगयी,मेरी शक्ल देख कर बोली क्या हुआ ?नाराज़ ना हो संडे को हम सब चलेंगे ,मैं मम्मी से लिपट गयी,और रोने लगी ,माँ भी घबरा गयी ,बोली बताओ मेरी बेटी हुआ क्या ?सब बता कर वो पुस्तक माँ के हाथ में रख दी,मेरी माँ मुझे गले से लगा कर  रो पड़ी। शायद उन्हें अपनी गलती का अहसास हो गया,पुस्तक ले वो तुरन्त ही मकान मालिक के घर गयी ,काफी लड़ाई हुयी ,और हमने वो घर बदल दिया. और मैं एक हादसे से बच गयी पर जिंदगी बहुत लम्बी है अभी तो फिर जिंदगी का एक नया  दौर शुरू हुआ मेरी युवावस्था का दौर। ............................................

Thursday, March 23, 2017

"वर्तिका अनन्त वर्त की( pg3)उपन्यास chapter 3 उड़ते पंख

"वर्तिका अनन्त वर्त की( pg3)उपन्यास chapter 3 उड़ते पंख 
मैं बदल रही थी ,अंतर्मुखी होने  के कारण ,घरवालो से हमेशा दूर और डरी हुई रहती थी ,अपनी ख़ुशी की एक अलग दुनिया बना ली थी मैंने, जिस में सिर्फ मैं थी,और किसी का उस दुनिया में आना मुझे पसन्द नही था ,पुरे दिन ,अपनी बड़ी उम्रवाली  सहेलियों की बाते सुनती ,और उनके रोमांटिक विचारो को सुन कर ,हैरान सी होती रहती, सही गलत की ,चर्चा भी भला किस से करती ,मेरी तन्हाई और बाल्यावस्था से युवावस्था में प्रवेश करती उम्र की ,तरफ कोई भी सोचनेवाला ना था ,माँ सांस ननद के चक्कर से मुक्त हो ,हम सभी भाई  बहनो की चिंता करना ,काफी पहले ही छोड़ चुकी  थी ,उन्हें ये स्वछन्द जीवन पहली बार मिला था ,पहले उन्हें सब के सामने घूंघट करना ,बाल बाँध कर रखना ,स्लीवलेस कपड़े नही पहना,आदि बहुत प्रकार की बन्दिशों में रहना पड़ता था ,किन्तु यहाँ वो पूर्ण स्वतन्त्र थी,और सिर्फ इस मुश्किल से प्राप्त अवसर का पूरा लाभ उठाना चाहती थी.. पापा ज्यादातर टूर पर ही रहा करते थे सो मम्मी और उन्मुक्त हो गयी थी,सिनेमा ,ब्यूटी पार्लर ,क्लब ,ये सभी मेरी मम्मी की जिंदगी के लिए अनिवार्य हो गए थे ,मैं छोटे भाई बहनो को सम्भालती, और सही गलत में उलझी रहती थी,किन्तु एक अच्छे परिवार के जीन्स होने के कारण मैं सिर्फ ख्यालो में ही भटकती थी यथार्थ में मुझे हमेशा सही और गलत का अंतर स्पष्ट पता होता,इसलिए मै पूर्ण रूप से अपनी और अपने भाई बहनो को ,किसी के सम्पर्क में नही आने देती,मेरी माँ सत्यकथाओं आदि पुस्तको को पढ़ने की आदि थी,और हमेशा मुझे इन पुस्तको से दूर रहने को कहा करती,जिसके कारण उन पुस्तको के प्रति मेरा आकर्षण  बढ़नेलगा ,और मैं उन्हें छुप छुप के पढ़ने लगी ,बड़ी अजीब  सी कहानिया होती थी, उनमे,पढ़ के मन फिर उलझ सा ,जाता था,मेरी परेशानी को दूर करनेवाला, कहि कोई भी नही था,पर मेरा मासूम मन ये ,समझ गया था की एक रिश्ता है ,जो छुप के जिया जाता हैं, मैं  बड़ी हो रही थी ,मेरी नज़र भी अब बदलती हुयी अपनी काया को देख रही थी,पर माँ मेरे साथ नही थी, स्तरहीन कहानियो को पढ़ कर  मेरा हर रिश्ते से विश्वास उठ गया था,मैं और भी अंतर्मुखी हो गयी और हर स्पर्श से बचने की कोशिश करती रहती किन्तु आखिर मैं भी इंसान ही थी इतनी उलझी हुयी सिर्फ सवाल और जवाब कोई भी नही........ एक दिन..................................................शेष  अगली  पोस्ट में


"वर्तिका अनन्त वर्त की( pg2)उपन्यास chapter 2बचपन


.बचपन तो बचपन ही है। हर सही और गलत से परे बस अपनी ही धुन मे ,मेरा ही नही हर बच्चे का  कौन सोचता है ,जिंदगी की गहरी सच्चाई ,हर भला या बुरा माँ पापा की जिम्मेदारी ,और हम बच्चे बस मस्ती ही मस्ती दादी की परी ,दादा की रानी,माँ की बिटिया ,और पापा  का दिल।
ये सम्बोधन, मेरी रक्षा ना कर सके न ,जाने क्यों मेरी माँ ने विकराल रूप धरा और ,मुझे हिंसा को अपना जन्म सिद्ध अधिकार मान कर, बहुत हिसात्मक रवैये से ,स्कूल भेजने में कामयाब हो गयी ,और मैं हार ही गयी, मम्मी की मार से ,तन कांपता था ,और स्कूल जाना ही बेहतर लगता ,वापस आने पर भी कोई लाभ नही मम्मी मुझे डॉक्टर से कोई ना कोई इंजेक्शन लगवा देती ,सो मैं  स्कूल में ही सुरक्षित थी,
शनै -शनै वक़्त आगे बढ़ता और मेरे पास एक छोटा सा भाई,  भी आ गया ,भाई  तो पहले भी था ,किन्तु ताऊजी के बच्चे उसे सिर्फ ,अपना भाई कहते ,पर अब ये सिर्फ मेरा था ,मैं दिन रात उसकी रक्षा करती ,तीन सालो के बाद फिर एक बहन भी मेरी जिंदगी में आ गयी ,और मैं सभी की नज़रो में बड़ी ही होती चली गयी ,हर बात पर डांट ,मार,बहुत असमंजस में रहती की अचानक मैं सबकी नज़र में बड़ी क्यों हो गयी ,माँ की दूरी मेरे हिस्से  का बंटता हुआ प्यार ,बहुत उदास रहती,भाई की तरफ से मेरे लगाव में  कोई कमी ना आयी, लकिन ये छोटी बहन तो फूटी आंख ना सुहाती थी,मुझे हमेशा लगता ,आखिर मैं थी ना ,फिर इसकी क्या जरुरत,भैया बेटा होने  के कारण ,और बहन सबसे छोटी होने  के कारण, माँ पापा  की आंख के तारे बन गए ,हर चीज़ पर उनकी पसन्द की मोहर लगने लगी ,माँ मुझे अपने पास सुलाती नही ,खिलाती नही,बस काम काम और काम  भैया का ये, छोटी बहन का वो ,अब मैं काफी चिढ़चिढ़ी हो  गयी थी.
हर वक़्त ,माता -पिता के सामने मैं !अपने भाई बहनो से बेहतर हूँ ,ये सिद्ध करने की नाकाम कोशिश करती ,और अपमान और कोप का भाजन बनती ,मैं किसी लायक नही हूँ ,ये जिंदगी का ब्रह्म वाक्य बन गया था, जो मेरी माँ हर समय मुझे कहती ,अब मैं  बहुत दुखी, सी रहती थी ,बचपन खो सा गया था ,वो बेफिक्री अब नही थी हर समय कुछ खोने के डर  से आशंकित सी रहती थी,बहुत अंतर्मुखी हो गयी थी, क्योंकि मेरी बात को ,हमेशा गलत साबित किया जाता था ,मुझे ,ज्यादा लोग अच्छे नही लगते थे ,इसी बीच पापा  ने हम सभी को दिल्ली से बसंतपुर  ले जाने ने का फैसला कर   लिया ,और ना चाहते हुए भी हम सब पापा के साथ चले गए ,मैं  अब 6 क्लास में थी ,ताऊजी के सभी बच्चे मुझसे काफी बड़े थे ,अक्सर अपनी बड़ी बहनो जो की युवा थी, आस पास के लड़को के बारे में छुप -छुप के बात करते हुए देखा था ,किन्तु वहाँ  मेरे हमउम्र दोस्त भी थे ,इसलिए मेरा ध्यान उनकी ओर कभी गया नही, ना दिलचस्पी हुयी ये  जानने की ,की वो क्या कहती और छुपाती रहती है ,मैं अपने बचपन को मस्ती से जी रही थी. हम जहाँ  रहते थे वहाँ  भी ,मुझे मेरी उम्र से काफी बड़ी ,एक लड़की मिली जिससे मेरी अच्छी  दोस्ती हो गयी ,पर भाग्य !ये भी अपनी उम्र अनुसार बस लड़को की ही बार करती,नया  शहर माँ की छोटे बच्चे संभालने की व्यस्तता, मैं  काफी अकेली सी हो गयी थी ,और मैं शायद हम उम्र दोस्त ना मिलने के कारण ,और इन बड़ी लड़कियों से दोस्ती ना टूट जाये, इस अकेलेपन से डर  के इनकी तरह ही बाते करने लगी थी जिसके कारन मेरा पूरा व्यक्तित्व ही बदलने लगा था. ना मैं छोटी ही रही थी, ना बड़ी ही ,,.....................................aage agli post me 

"वर्तिका अनन्त वर्त की"( pg1)उपन्यास बदलते रंग

..मेंरे प्यारे दोस्तों,
आज लेखनी के माध्यम से मैं एक भोली भाली लड़की के जीवन के अनुभवों को कहानी का रूप दे कर प्रस्तुत करुँगी जिंदगी के उतार- चढाव, सुख- दुःख ,,जो पहेली बन कर उसकी जिंदगी में ,सदैव ही, आते रहे, और बिना सूलझे ही , दूसरे प्रश्नों में उलझा , कर लोप होते रहे ,पर जिंदगी बढती रही, का विस्तृत वर्णन करने का प्रयास करूँगी उसकी जिंदगी ज्यादा देर, कभी एक तरह के रंग में नही रही बहुत से बेशुमार रंग देखे है उसने ,,इतने रंगों को देखने के बाद शायद अब, उसे दो रंग ही, सच्चे और अपने लगते है,एक काला औरएक सफेद, बाकि रंग बस मौसम की तरह ही बदलते है ,पर ये दो रंग जिंदगी में इस तरह आते है, की फिर कोई मौसम ,इन्हें बदल नही पाता ,खास कर ये दर्द का काला रंग ,ये इस तरह जिंदगी को ,खुद में गुम कर लेता है की, अपना अस्तिव ही बदल जाता है.
उसकी खूबसूरत जिंदगी, सच बहुत ही खूबसूरती से, बदसूरती में बदलती चली गयी ,सोचा की कही ये , दर्द के रंग उसकी जिंदगी, के साथ ही खतम न हो जाये ,क्यों न कुछ सच्चे हमदर्द ,जो उसकी सूरत से अपरिचित ,किन्तु उसके दर्द से परिचित हो, मैं ये दर्द बाँट पाऊ ,जो उसके दर्द के रंगों को अनुभव कर अपने जीवन के रंग बदल सके।
कहानी के मुख्य पात्र माता पिता
नाम अदिति , भाई सृजन और बहन आकृति ,
इसी प्रकार क्रमशः मेरे चचेरे भाई बहन सविता कविता प्रमेय
ललित और सर (टीचर ]
अन्य बहुत से चरित्र जो आये और चले गए.
ये कहानी मैं स्वयं को अदिति के रूप में प्रस्तुत कर उसकी जुबानी ही आप तक पहुचाउंगी ताकि आप उसकी बदलती भवनाओ और असमंजस को गहराई से समझ सके .
सर्वप्रथम अदिति का एक परिचय अदिति एक सुंदर प्यारी संस्कारी और आज्ञाकारी लड़की थी ,जिसकी जिंदगी कमशः अनुभवों से बदलती चली गयी और जीवन के अंत में वो जीवन को बिना समझे ही संसार से चली गयी 
दोस्तों ये कहानी किश्तों में आप तक पहुचाउंगी आशा है आप इससे पसंद करेंगे नमस्ते शिखानारी...........

."वर्तिका अनन्त वर्त की"( pg1)उपन्यास बदलते रंग 
                   अपने बचपन से शुरू करती हु, इस वादे  के साथ की, अपनी हर याद के साथ इन्साफ करूँगी ,ये कहानी ,ममता ,भरोसे ,प्यार,धोखे ,दर्द जुदाई ,अपमान,बेबसी,बेरुखी,सभी तरह के मसालो से,सुसज्जित है। 
मेरे और मेरे भाई बहनो के बीच ७-८ साल का अंतर रहा था ,सो इस अंतर को मैंने इकलौती औलाद के रूप में जहाँ बहुत प्यार ,मिलने के कारण शायद मैं ,काफी जिद्दी हो गयी थी, और माता- पिता पर अपना पूर्ण अधिकार समझती थी ,पापा  ,दादा- दादी, सबकी बहुत लाडली थी। देखने में मैं एक बहुत गोरी गोल मटोल सी बच्ची थी ,जो बहुत सूंदर है के सार्टिफिकेट से नवाजी गयी थी , मेरी हर बात को पूरा करने की ,वो हर सम्भव कोशिश किया करते थे ,शायद उन सबके बीच, एक प्रतियोगिता सी लगी रहती थी ,की कौन मुझे, ज्यादा प्यार करता है, और मैं ,इस स्थिति का पूरा लाभ उठती थी, और मम्मी- पापा सब का उपयोग, अपनी इच्छाये ,पूरी करने में करती थी,  दादा- दादी, माँ -पापा के प्यार में, खुद को बहुत ही जरूरी और खास समझने लगी ,
हम सब ,पापा के बड़े भाई, मेरे ताऊजी के परिवार के साथ ही रहा करते थे ,उनके 3 बच्चे थे मैं ही छोटी थी और पापा  भी दिल्ली से बाहर रहा करते थे, सो ताऊजी की भी लाडली थी मैं ,
पापा  जब भी आते ,मेरे लिए बहुत से खिलौने, आदि लाते ,और मैं और भी ,खास बन जाती थी ,पाप हर काम मेरी इच्छा से करते ,
ये बहुत ही खूबसूरत दौर था ,मेरी जिंदगी का, हंसती खेलती बस जिंदगी आगे बढ़ रही थी ,अब मेरे स्कूल जाने का समय काल भी आ पंहुचा था 
हर माँ की तरह मेरी प्यारी माँ भी मुझे स्कूल भेजने के लिए बहुत उत्सुक थी ,दादाजी सिविल सर्विसेज में थे इसलिए स्कूल वालो की भी मुझ पर विशेष कृपा रहती थी ,पर स्कूल का वातावरण, जहाँ अध्यापिकाएं मुझे बहुत "खास" ना समझ कर सामान्य व्यवहार करती मुझे बिलकुल ना भाता ,किसी से डरना ,किसी का मुझे डाँटना ,ये सब बहुत अजीब था मेरे लिए सो स्कूल जाने के समय ,मैं बहुत तकलीफ देती ,मेरी माँ मुझे घर के कामकरनेवाले व्यक्ति  की साईकिल के कैरियर से बांध देती,और वो मुझे मेरे स्कूल के गेट के अंदर पहुँचा कर वापस आता,पर मैं लंच टाइम में रो- रो कर वापिस आ जाती ,सबको ऐसा लगने लगा था की मैं पढ़ नही पाऊँगी ,सब हार गए थे ,और मैं मैडम सपेशल बहुत खुश थी ,होमवर्क क्लासवर्क सब निल परीक्षा में अनुपस्थित रहती थी ,आखिर मेरी मम्मी ने अपना रूप बदल डाला।।।।।।।।।।।।अब आगे अगली पोस्ट में