"वर्तिका अनन्त वर्त की o chapter13असमंजस
वो रोज आते संडे को तो और ज्यादा पढाते मैँ भी उतनी देर वही परदे के पास बैठ कर पढ़ती बीच बीच में पर्दा उड़ता और हम चुप- चाप एक दूसरे देख कर भी अनजान से बन जाते ,मैंने बाहर जाना छोड़ दिया था ,बस हर समय घर में ही रहती थी ,आज शनिवार था दो दिन से सर नहीं आये थे कही न कही मन उनका इंतज़ार कर रहा था ,सोचा बालकनी की ठंडी हवा में जाती हूँ ,पर बाहर कुछ नहीं बदला था घर के दोनों तरफ ,वो दुष्ट आशीष अपने दोस्तो साथ एक शिकारी की तरह मेरे ही घर की तरफ देख रहे थे ,मन खट्टा हो गया मैं ,फिर अंदर आ कर बैठ गयी बेल की आवाज़ आयी उदास सी खोलने गयी तो जैसे ही आ गया सामने ललित अपने सामान के साथ वहां खड़ा था ,समझ ही नहीं आया खुश हूँ या दुखी -----------------
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